शनिवार, 4 जनवरी 2014

तलाश


मैं हर दिन उठ कर भागती हूं

घर से बाहर

एक अनजानी खुशी की तलाश में

शहर की गलियों की खाक छानकर

थक कर लौट आती हूं रात को

जैसे कोई चिडि़या शाम को 

लौट आती है

अपने घोसले में हर दिन


वह खुश है कि 

पूरा जंगल उसका है

पूरा आकाश उसका है

और मैं एक अनजाने शहर में

ढूंढती हूं अपनी जमीं, अपना आकाश

चलती हूं हर दिन

हर खेमे से जूझते हुए

कहीं महिला विरोधी खेमा

कहीं जाति विरोधी खेमा

कहीं धर्म विरोधी खेमा

कहीं ईष्र्या और डाह

लड़ती हूं इंसान की तरह

बस इंसानियत का साथ पा लेने को,

यहां कुछ भी ठहरा सा नहीं लगता

दौड़ती-भागती हैं सारी चीजें

न जाने कहां रूक जाने को

या निरंतर इसी गति से भागने को

मैं भी भागती हूं

न जाने कहीं रूक जाने को

या फिर निरंतर भागने को

पर एक ही जगह है

अपना गांव

जहां पहुंचते ही लगता है

दुनिया रूक जाती है

कुछ थम सा जाता है

शायद मैं या वक्त या लोग

खेत खलिहान या फिर सबकुछ,

न खाने को लेकर हर दिन

शहर की ओर भागना

न किसी को दिखाने को

हर दिन नये डिजाइन के कपड़े

की फिक्र करना

जो है बस बहुत है

अपनी जमीन, अपना आकाश

अपनी नदी और अपना जंगल ।

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