पीयूष पन्त
कलम हुई दासी
जनता में फैली अजब उदासी
मुट्ठी जब भिंचती है उठने को ऊपर
त्योरियां तब चढ़ जाती हैं उनकी क्यों कर
नारे उछलते हैं गगनभेदी
मानो बजती हो दुन्दुभी जनयुद्ध की
होते इशारे फिर कहर है बरपाता
जनता पर डंडे और गोली बरसाता
बार- बार लोकतंत्र की कसमें है खाता
सत्ता के नशे में रहता मदमाता
फिर भी वो जनता का नेता कहलाता
कैसा ये लोकतंत्र कैसी आज़ादी
बोलने समझने की, जहाँ ना हो मुनादी